श्रीमद्भागवत -२७५; दन्तवक्त्र और विदुरथ का उद्धार तथा तीर्थयात्रा में बलराम जी के हाथ से सूत जी का वध
श्रीमद्भागवत -२७५; दन्तवक्त्र और विदुरथ का उद्धार तथा तीर्थयात्रा में बलराम जी के हाथ से सूत जी का वध
शिशुपाल, शाल्व और पोंड्रक आदि
ये सारे जब मर गए तो
रणभूमि में आ गया दन्तवक्त्र
मित्रता का ऋण चुकाने को।
इतना शक्तिशाली था वो कि
पृथ्वी हिल रही पैरों की धमक से
हाथ में उसके गदा पकड़ी हुई
भगवान कृष्ण ने जब देखा ये।
गदा लेकर रथ से कूद पड़े
उन्हें देख दन्तवक्त्र ने कहा
‘ मेरे मामा के लड़के तुम, इसलिए
नही चाहिए तुमको मारना।
परन्तु एक तो तुमने मेरे
मित्रों को मार डाला है
मुझे भी मारना चाहते इसलिए
तुम्हें मार डालूँगा आज मैं।
यह कहकर कृष्ण के सिर पर
गदा का प्रहार किया उसने
कोमोद की गदा से प्रहार किया
कृष्ण ने वक्षस्थल पर उसके।
इससे उसका कलेजा फट गया
निष्प्राण हो गिर पड़ा धरती पर
मृत शरीर से एक ज्योति उसके
समा गयी कृष्ण में आकर।
विदुरथ दन्तवक्त्र का भाई
शोकाकुल हुआ भाई कि मृत्यु से
तलवार लेकर आ गया हाथ में
वो वहाँ क्रोध के मारे।
भगवान ने अपने चक्र से
सिर धड़ से अलग कर दिया उसका
इसके बाद भगवान ने फिर
द्वारका पुरी में प्रवेश किया।
एक बार बलराम जी ने सुना
कौरव, पांडव युद्ध की तैयारी करें
वे तो मध्यस्थ थे, पसंद ना उन्हें
पक्ष लेना किसी भी और से।
तीर्थों में स्नान के बहाने
द्वारका से चल दिए वो
प्रभासक्षेत्र में स्नान किया और
पूजा देवता, ऋषि, पितरों को।
सरस्वती नदी के साथ में
ब्राह्मणों को लेकर चल दिए
बिंदुसार गए और गए वो
यमुना, गंगा के प्रधान तीर्थों में।
तब नेमिषारणय पहुँच गए
महान सत्र कर रहे ऋषि वहाँ
सबने उठकर प्रमाण किया था
उन्होंने जब बलराम को देखा।
बलराम जी ने देखा कि व्यास के
शिष्य रोमहर्षण वहाँ थे
सूत जाती में उत्पन्न होने पर भी
व्यास गद्दी पर बैठे हुए।
श्रेष्ठ ब्राह्मणों से ऊँचे आसन पर
बैठे थे वो और उन्होंने
ना तो प्रमाण किया बलराम को
ना ही वो उठकर खड़े हुए।
बलराम जी क्रुद्ध हो गए
और तब वे ये कहने लगे
‘ प्रतिलोम जाती का होने पर भी
ऊँचे आसन पर कैसे बैठे ये।
इसलिए यह मृत्यूदंड का पात्र
यह विनयी नही, उदंड है
अध्ययन सब स्वाँग के लिए इसका
किसी का इसको लाभ नही है।
धर्म का चिन्ह जो धारण करते पर
धर्म का पालन नही करते
मेरे हाथों वध के योग्य वे
इसलिए ही अवतार धारण किया मैंने।
ऐसा कहकर बलराम जी ने फिर
हाथ में जो कुश थी उनके
उसकी नोक से प्रहार किया उनपर
रोमहर्षण तुरन्त मर गए।
ऋषी मुनि सब हाय हाय करने लगे
उन्होंने बलराम जी से कहा ये
‘ प्रभो ! बहुत अधर्म किया आपने
सूत जी को तो हम लोगों ने।
ब्रह्मणोचित आसन पर बैठाया था
और समाप्त होने तक इस सत्र के
शारीरिक काल से रहित
आयु भी दे दी थी उन्हें।
अनजाने में आपसे जो हो गया
ब्रह्महत्या के समान पाप ये
आप इसका प्रायश्चित करेंगे तो
लोगों को शिक्षा मिलेगी इससे ‘।
भगवान बलराम जी ने कहा
‘ अवश्य करूँगा मैं प्रायश्चित ये
जो भी उचित परामर्श हो
आप लोग विधान कीजिए।
आप लोग आयु, बल, इंद्रियाँ
जो कुछ भी देना चाहते इसको
अपने योगबल से दे दूँगा
बस आप मुझे बतला दीजिए ‘।
ऋषियों ने कहा, ‘ बलराम जी आप
ऐसा कोई उपाय कीजिए
आपका शस्त्र, पराक्रम और इनकी
मृत्यु भी व्यर्थ ना हो जिससे।
हम लोगों ने इन्हें वरदान दिया
वह भी सत्य हो जाए
भगवान बलराम ने कहा ऋषियों से
करता हूँ कुछ ऐसा उपाय।
कहें वो ये कि वेद ये कहते
आत्मा उत्पन्न हो पुत्र के रूप में
रोमहर्षण के स्थान पर उसका पुत्र अब
पुराणों की कथा सुनाएगा तुम्हें।
दीर्घायु, इंद्रियशक्ति और बल
उसे मैं दूँगा अपनी शक्ति से
इसके अतिरिक्त और कुछ भी हो
तो आप लोग कह सकते हैं मुझे।
आप लोगों की इच्छा पूर्ण करूँ
अनजाने में अपराध हुआ है मुझसे
विद्वान हैं आप लोग सभी
कैसे प्रायश्चित करूँ मैं, कहिए।
ऋषियों ने कहा ‘ बलराम जी
इलवल का पुत्र बलवल नाम का
एक भयंकर दानव है वो
हर पर्व पर आ धमकता।
यहाँ आकर हमारे सत्र को
दूषित करे वो पीव, विष्ठा से
आप से निवेदन हमारा
कि आप उसे मार दीजिए।
इसके बाद एकाग्रचित्त से
तीर्थों में स्नान करते हुए
भारत वर्ष की परिक्रमा करके
बारह महीने में शुद्ध हो जाएँ।