शाम एक सवाल
शाम एक सवाल
अंधेरे में सूनी सी सड़कों पर बीती,
भूली और भटकती सी शाम।
कभी गुमनुमा सी, और रौशन कभी,
कभी दीये कि भाँति चमकती है शाम।
रूठे,मनाये,हँसे,खिलखिलाये,
हृदय को आराम देती सी शाम।
हर्षित करे जो कभी मेरे मन को,
वो रातरानी सी खिलती है शाम।
नयनों में पानी को थामे खड़ी हो,
देखूँ! कभी वो संभलती सी शाम।
अगर खो जायें पन्ने, जिंदगी की किताब से,
डुबोकर क़लम, कुछ लिखती है शाम।
यादों की अपनी गठरी बनाकर,
अधूरे ख़यालों में बीती सी शाम,
हृदय में पीड़ा देकर मुझे,
कभी रोती और बिलखती है शाम।
छीन लेती अगर, कभी मेरी खुशियाँ,
अनजानी राहों से गुज़रती सी शाम।
मिल जाये अगर कोई हम सा,
मैख़ाने में बहती, छलकती है शाम।
सीने में दबाये बैठा हूँ कब से,
ना जाने कैसे ? ये गुज़री हैं शाम।
कैसे कहूँ ? अपने क़िस्से किसी से,
क्यों ? हर दिन नया मोड़ लेती हैं शाम।
