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anuradha jain

Abstract

4.8  

anuradha jain

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रुखसत

रुखसत

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मैं रुखसत लेती तुम्हारी,

चूड़ी, कंगन, पायल, झुमके

वाली दुनिया से और

बन जाती हूँ, सिर्फ नारी

बहती सरिता सी कहकहा लगाती नारी,

बादलों पर घूमती आसमान से तारे ढूढकर लाती नारी,


मैं लेती हूँ, रुखसत तुम्हारे रिवाजों से,

तुम्हारे उपकारों से, बेवजह खींची गई तुम्हारी

लक्ष्मण रेखा के दायरों से

और

बन जाती हूँ सिर्फ नारी

झनाचती, झूमती,गाती अलबेली नारी,


तुम मुझे फिर ढूढ़ लेना,

इसी सफर पर

उसी रूप में जिसमे मै ढलना चाहती हूँ,

तब तक के लिए मै रुखसत लेती हूँ।



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