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रंग उभरते ही नहीं

रंग उभरते ही नहीं

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पेड़ की कूची से

धरती के विशाल कैनवास पर

उकेरना चाहता हूँ एक चित्र

मगर रंग उभरते ही नहीं।


सूखे, पत्र-विहीन पेड़

नहीं पकड़ पाते

प्रकीर्ण सूर्य-रश्मियों कोऔर,

संवेदनाओं की मिट्टी

गीली ही नहीं होती !


लिखना चाहता हूँ

भाव भरे प्रणय-गीत।

अंतरतम के कोमल भावों से

स्नेहसिक्त अक्षर बुन-बुन

मगर शब्द उगते ही नहीं।


प्यार का सागर

हिलोरें नहीं लेता।

नहीं उफनतींं अब

डरी हुई नदियाँ भी।


ठहर गया हो, जैसे

प्रेम का अविरल

अविकल-अविराम

झरना भी -

आस-विश्वास के 

इस मरूस्थल में !


उम्मीदों के जुगनू

निराशा के घनेरे बादल

उम्मीदों का चाँद

निगल तो नहीं लेते ?

धूल भरी आँधी

सूरज का रास्ता

रोक तो नहीं लेती ?


राह में पड़ी

अडिग-अविचल चट्टानें

झरनों का प्रवाह

रोक तो नहीं लेतींं ?


धुप्प अँधेरे को चीर देती है

रोशनी की एक हल्की-सी रेख।

मचलकर तटों से टकराती हैं

सागर की उद्दाम लहरें।


आकाश छूने को आतुर हो जाता है

हौसला, आत्मविश्वास और मनोरथ।

तब, एक जुगनू भी

ज़िंदगी की मशाल बन जाता है।


जब दिख जाता है 

दूर, उम्मीदों के आसमान में

चमकता-दमकता ध्रुवतारा !


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