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Avilash Kumar Pandey

Abstract

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Avilash Kumar Pandey

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रात्रि सुरा

रात्रि सुरा

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हलचल पल-पल है मनोदशा

तम के दलदल में कहीं धँसा

है उथल-पुथल करवट लेती

भारी गुजरेगी आज निशा

दस्तक देती मेरे चौखट

धीरे से पुकारे नाम मेरा

साझा करने आयी मुझसे

रातों की अकेली आज निशा।


आँखें ना मूंदें उजियारा

चादर ओढ़े जो हटा दिया

सब झूठे-मुठे जतन करूँ

निद्रा ने ऐसा दगा दिया

जग को मीठे सपनों में रमा

बैठी मेरे संग लिए सुरा

जाने किस जश्न में है बैठी

रातों की महफ़िल सजा लिया

कहती जीले संग रात्रि मेरे

फिर सुबह मिले ना मिले भला

साझा करने आयी मुझसे

रातों की अकेली आज निशा।


कहती ना जलाऊँ मैं तुझको

शीतलता मेरी छाँह में है

अँधेर नगर है भले मेरा

कौमुद प्रबन्ध हर गाँव में है।

बहती बयार शीतल, निर्मल

सब जीव वृहत विश्राम में हैं

गिरती झर-झर-सी रजत ओस

तारों की दुनिया नाम में है।

रजनी की व्याख्या सुन मेरे

मन-अंतर सबतर पूर्ण भीगा

साझा करने आयी मुझसे

रातों की अकेली आज निशा।


अनुग्रह का मान रखा मैंने

जो हाथ रात्रि का थाम लिया

जो महफ़िल जमी तेरी-मेरी

हठ छोड़ झिझक को मिटा दिया

जब रात पहर ने ली बदली

महफ़िल में तारे बिछा दिया

निशि के आने नभ द्वार खुले

तब रात्रि मगन ने साज किया

आँचल में भरे सब चमकीले

नयनों में काजल धार दिया

नर्तक बनकर जब थिरक उठी

शलभों ने बराबर ताल दिया

मनभावन कला प्रदर्शन से

कौमुद बरसी अब दशों दिशा

साझा करने आयी मुझसे

रातों की अकेली आज निशा।


हर एक छटा नजरों में जिया

तारीफ़ में तेरी काव्य किया

क्यों रात्रि की अदभुत शुभ्र अदा

चक्षुओं ने अब तक नहीं जिया

हतप्रभ, आनंद के द्वन्द तले

कब रात ने बदली अपनी छटा

मदहोश मुझे कब छोड़ गयी

माहौल का कुछ ना पता रहा

जब आँख खुली तो अर्क ने सब

महफ़िल के रंग को भंग किया

निशि को किरणों का बंधक कर

दिव विजय ने अपना रंग  किया

दिन-रात के इस सन्दर्भ में मैं

सुरभि तक सुर का मान किया

साझा करने आयी मुझसे

रातों की अकेली आज निशा।।


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