पत्ता
पत्ता
एक नन्हा, कोमल, नाजुक-सा
खुद में ही खोया
हवा के झोंके से लहराया
वो एक हरा पत्ता।
पहले था वो कोमलांगिनी-सा
फिर धीरे-धीरे चढ़ता यौवन
खूब इठलाता, खुद पर इतराता
वो एक बढ़ता पत्ता
अब कालचक्र के फेर में
थकता हुआ, मुरझाता हुआ
कुछ-कुछ झुकता, सब सहता हुआ
वो एक सूखा पत्ता
चक्र है ये सृष्टि का
आता जाता हर क्षण
लाता एक नई चुनौती
हे नर.... जिस लक्ष्य हेतु आया यहां
उसको तो पूरा कर
ऐसा ना हो कि... उस क्षण रह जाए तू भी
बस एक पत्ता - सा।