प्रकृति सन्तुलन
प्रकृति सन्तुलन
मौत करती सितम और बेबस हैं हम।
देखते देखते आज क्या हो गया।।
ख्वाहिशें हसरतें चाँद छूने की थी।
खा़क में मिल के सारा जहाँ खो गया।।
जिसने की थी बुलन्दी की चाहत कभी।
वे बुर्ज सारे जमींदोज हैं।।
जो शहर रोशनी में सराबोर थे।
वह चकाचौंध भी आज कमजोर हैैं।
मानवी शक्तियाँ आज व्याकुल हुईं।
प्रकृति दोहन किया जलाया गया।।
जिस तरफ गर्द थी जिस तरफ भीड़ थी।
तन्हा रहने का ये सिलसिला आ गया।।
आज बदलें न जो अपनी आदतें।
वो अम्नोसुकूँ न मिल पाएगा।।
प्रकृति को छेड़ना जो हम छोड़ दें।
हर तरफ फूल शान्ति का खिल जाएगा।।
