प्रकृति चेतना
प्रकृति चेतना
सोचा मैं एक बगिया बना लूँ,
जीने के लिए सांसें सजा लूँ।
बो दिया एक बीज ज़मीन में,
पवन, जल,सूरज के स्नेह में,
प्रकृति के गोद में।
जीवन उस बीज में आया,
धरती फाड़ कर एक नन्हा पौधा,
बहार कुछ यूं आया,
मानो आँखें खोलकर
एक नवजात शिशु,
मुझको माँ होने का
एहसास दिलाया।
यूं ही पौधे जवान हो गये,
एक पौधा से बागान हो गये।
उम्र के इस पड़ाव में,
भागती ज़िन्दगी के ठहराव में,
किसी अपने के अभाव में,
घुटती ज़िन्दगी के तनाव में,
जो कभी पहुंच जाता हूँ
उस बागान में,
जहाँ मुस्कुराते और गाते हैं
फूल, पत्ते, चिड़िया और तितलियाँ,
और पेड़ की छाओं में,
जहाँ छू कर गुजरती झोंके हवा के
मानो कर रही अटखेलियाँ।
लगता है हूँ मैं अपने ही
बच्चो के मकान में।
अक्सर सोचता हूँ मैं उस दरमियान,
कितना निष्ठुर हो गया है इंसान,
नष्ट कर रहा प्रकृति के उस रूप को,
जो देती हमें सुकून के दो पल,
रोटी कपड़ा और मकान।
पेड़- पौधे धरती की शान हैं,
ज़िन्दगी के मुस्कान हैं।
देर हुई है अंधेर नई,
आज अगर रुकता नहीं इंसान।
वो दिन दूर नहीं,
जब स्वर्ग सी धरती होगी
बंजर श्मसान।
