पंछी
पंछी
क्षितिज हो तो क्या,
पार पाने को पंछी उड़ते ।
अंधियारा हो तो क्या,
रात हो तो भी क्या?
चंदा न हो तो क्या?
तारे तो टिमटिमाते।
उठ जा रे अब तो,
संगम में सब हैं चलते ।
क्षितिज हो तो क्या,
पार पाने को पंछी उड़ते ।
सागर हो तो क्या,
राम तो भी लंका पहुंचे।
समय न भी था तो क्या,
हनुमान तो संजीवनी लाते ।
विघ्न हो, बाधा हो,
पत्थर हों या फिर पर्वत,
पथिक कहाँ हैं रुकते।
हिमालय हो या हिमसागर,
सन्यासी कहाँ हैं थकते,
क्षितिज हो तो क्या,
पार पाने को पंछी उड़ते ।
ऊँचा हो या फिर गहरा,
राह दुर्गम या सुगम हो,
हम कहाँ हैं रुकते।
पंछी हैं हम तो उड़ते,
सीमाएं कहाँ हम समझते ।
क्षितिज हो तो क्या,
पार पाने को पंछी उड़ते ।