पहला दिन...
पहला दिन...
देखा है तुमने कभी स्वेटर बुनते किसी को
कैसे कई तरफ से ऊन के धागे
सलाइयों से उलझ कर
एक आकार को उतार देते हैं उस पर,
देखा है तुमने कभी स्वेटर बुनते किसी को...।
कुछ यूं ही रंगों के धागे को पकड़
हम आते हैं कालेज एक ख्वाब को बुनने
कई ख्वाब तो मेरी मम्मा ने ही बुन दिए थे बचपन में
मेरी एक बांह पर
हाँ पर वो आस्तीन अब मेरे हाथों में नहीं आती
सो अब मैं नयी बुनाई
नये रंगों को लेकर अपने हाथों से अपनी आस्तीन पर
नये आकार बुन रहा हूँ
हाँ थोड़ा सा उलझ भी गया हूँ
इन सलाइयों के फंदों में
लेकिन डर नहीं मुझे
मेरे साथ हैं इसको सुलझाने वाले
मुझे समझाने वाले
जिनकी एक रंग की डोर हूँ मैं
जो चाहते हैं
जल्दी मैं उस पूरे ख्वाब के आकार से सजे
स्वेटर को पहन कर चलूँ।
जो चाहते हैं
जल्दी मैं सलाइयों के फंदों से निकल कर
खुद से मिलूं।
देखा हैं तुमने कभी स्वेटर बुनते किसी को।
