गिलहरी
गिलहरी
बाग़ में एक दिन डोल रहा था
माली से कुछ बोल रहा था।
इतने में आवाज ये आई
पांव उठाओ अपना भाई।
देखा एक गिलहरी सुँदर
देख रही थी मुझको निरुत्तर।
कहती तेरा पाँव जहाँ है
मेरा खाना वहां पड़ा है।
कैसी थी ये प्रभु की माया
उसकी भाषा समझ में पाया।
हतप्र्भ मैं था पर पूछा
कैसी हो तुम कहाँ हो रहती
''बड़े पेड़ पर रहती हूँ मैं
चलोगे तुम'' वो मुझसे कहती।
मुझे भी काफी जिज्ञासा थी
चल पड़ा संग उसके मैं तब
एक पेड़ पर उसका घर था
बच्चे उसके सो रहे सब।
माँ ने था जगाया उनको
प्यार से खाना खिलाया
मुझे देख के डर गए थे
माँ ने तब मुझसे मिलाया।
कहने लगी ये बाग है इनका
जहाँ से खाना लाती हूँ मैं
बस तुमसे मिलना था इनको
इन्हे छोड़ के आती हूँ मैं।
मुझे वापिस था उसने छोड़ा
जाते हुए दिया एक उलाहना
माली जो रखा है तुमने
लेने न देता मुझे खाना।
देख के मुझको पत्थर मारे
फिर मैं जान बचाकर भागूं
बच्चे उस दिन भूखे रहते
किससे मैं सहायता माँगूँ।
आप भले हो लगते मुझको
इस लिए सब कहती हूँ मैं
माँ हूँ अपनी फ़िक्र नहीं है
बच्चों की फ़िक्र में रहती हूँ मैं।
मैंने माली को बुलाया
कहा उसे ये दोस्त मेरी
खाना जितना मर्जी ये ले
इसकी रक्षा ड्यूटी तेरी।
उसने धन्यवाद दिया मुझे
अपने घर को चली गयी थी
बजा अलार्म उठ गया मैं भी
कोई गिलहरी वहां नहीं थी।