पहेली: भाग 3
पहेली: भाग 3
(पिछले दो अंकों में आपने पढ़ा था कि अपने पति किशन के ड्यूटी से नहीं लौटने के कारण राधा बहुत चिंतित हो जाती है। राधा अपनी मां और भाई को साथ लेकर थाने में रिपोर्ट दर्ज करा आती है। साइबर एक्सपर्ट किशन के मोबाइल से उसकी लोकेशन बिठूर बताता है जबकि उसकी ड्यूटी महाराजपुर में थी। इसे देखकर थानेदार का सिर चकरा जाता है। अब आगे)
मोबाइल से लोकेशन की जानकारी होने पर थानेदार इस केस को ए एस आई भंवर सिंह को अनुसंधान के लिए दे देता है। भंवर सिंह कांस्टेबल से पदोन्नत होकर ए एस आई बना था। जब वह कांस्टेबल था तो वह एस पी साहब के घर में साफ सफाई का काम करता था। उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर एस पी साहब ने उसको पदोन्नत करके हैंड कांस्टेबल बना दिया था और उसकी सेवाऐं अपने पास ही बरकरार रखीं। एस पी के लिए क्या कांस्टेबल और क्या हैड कांस्टेबल ! काम तो एक सा ही है दोनों का ! इसलिए जो काम कांस्टेबल के रूप में पहले कर रहा था भंवर सिंह वह काम हैड कांस्टेबल बनने के बाद भी लगातार करता रहा ।
कुछ साल बाद एस पी साहब का स्थानांतरण हो गया तो अगले एस पी साहब ने भंवर सिंह की गृहकार्य में दक्षता को ध्यान में रखते हुए उसे अपने पास ही रखा। नये एस पी साहब की मेहरबानी से इस बार भी वह समय से पहले ही प्रमोशन पा गया और वह ए एस आई बन गया।
जब तक ये एस पी साहब पद पर रहे तब तक भंवर सिंह ए एस आई बनकर भी एस पी साहब के घर के बर्तन साफ करता रहा , झाड़ू पोछा करता रहा। जैसे ही एस पी साहब का स्थानांतरण हुआ वैसे ही उन्होंने भंवर सिंह को भी "आजाद" कर दिया और अपने इलाके के सबसे महत्वपूर्ण थाने में तैनात कर दिया।
भंवर सिंह को पुलिस के काम की एबीसीडी भी नहीं आती थी क्योंकि उसने कभी वह काम किया ही नहीं। जिसने कभी कोई काम नहीं किया हो और न ही करने की इच्छा हो तो वह क्या करेगा ? सिर्फ चमचागिरी ! भंवर सिंह भी यही करने लगा। पहले वह एस पी की कर रहा था अब वह थानेदार की चमचागिरी करने लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि थानेदार उसे ऐसे केस देता था जिसमें उसे कुछ नहीं करना होता था।
यह केस भी ऐसा ही केस था जिसमें बकौल थानेदार पुलिस को क्या करना था ? किशन पुलिस से पूछकर कहीं गया था क्या ? नहीं ना ! जब उसके जाने में पुलिस की कोई भूमिका नहीं थी तो उसे ढूंढने में क्यों होनी चाहिए ? पुलिस के पास कितने काम होते हैं ! ऐसे फ़ालतू लोगों को ढूंढने का काम पुलिस का है क्या ? तो फिर पुलिस ऐसे लोगों को क्यों ढूंढे ?
किशन के घर आने या नहीं आने से पुलिस महकमे को क्या फर्क पड़ने वाला था ? फर्क तो राधा को पड़ने वाला था। लेकिन इससे पुलिस को क्या ? संवेदना जताना पुलिस और कोर्टो का काम नहीं हैं। ये दोनों विभाग संत की तरह निरपेक्ष होते हैं। जिस तरह एक संत को पूरी दुनिया एक जैसी लगती है उसी तरह पुलिस और न्यायालय को भी सभी लोग एक जैसे लगते हैं। पुलिस और न्यायालय में काम करने वाले लोग सबसे बड़े संत हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने कहा है कि मनुष्य को न तो कर्मों में आसक्ति रखनी चाहिए और न कर्मफल की इच्छा ही रखनी चाहिए। कर्मों और कर्मफल में आसक्ति नहीं रखने वाला व्यक्ति "कर्मयोगी" कहलाता है। पुलिस और न्यायालय में काम करने वाले लोग"कर्मयोग" के सबसे अच्छे अनुयायी हैं। दोनों ही विभागों में काम करने वाले लोग न तो कर्मों में आसक्ति रखते हैं और न ही कर्मफल में। सही मायनों में अगर देखें तो इन दोनों विभागों में काम करने वाले अधिकांश अधिकारी और कर्मचारी सबसे बड़े "योगी" होते हैं।
योगी मतलब "समता" में स्थित व्यक्ति। समता में स्थित व्यक्ति न दुख में दुखी होता है और न सुख में सुखी होता है। पुलिस और न्यायालय को फरियादी के दुख सुख से कोई लेना देना नहीं है। फरियादी चाहे बलात्कार से पीड़िता हो या हत्या के प्रयास में बचने वाला कोई व्यक्ति हो। पुलिस के लिए सब लोग केवल "फरियादी" हैं जिन्हें घंटों थाने में रिपोर्ट लिखवाने के लिए खड़ा रहना होगा। जब पुलिस चाहेगी तब उन्हें थाने में आना होगा और अपना बयान दर्ज कराना होगा। पुलिस की सुविधा से मौके का मुआयना कराना होगा। इसके लिए अनुसंधान अधिकारी को वाहन भी उपलब्ध कराना होगा। थाने में एक या दो ही तो गाड़ी होती हैं जो थानेदार और दूसरे नंबर के अधिकारी की सेवा में व्यस्त रहतीं हैं। ए एस आई और कांस्टेबलों के लिए गाड़ी की सुविधा थोड़े ना होती है। पैदल या सार्वजनिक वाहनों से मौके पर पुलिस कैसे जाये ? इसलिए जांच अधिकारी फरियादी को ही कहता है कि गाड़ी लेकर आओ तभी मौका मुआयना होगा। फरियादी बेचारा क्या करे ? उसे तो पुलिस के "आदेश" का पालन करना ही है वरना पुलिस उसे ही अपराधी घोषित कर सकती है और जेल में "ठूंस" सकती है।
अब इनसे अधिक और कोई व्यक्ति "योगी" हो सकता है क्या ? इसीलिए पुलिस वाले अपने काम में सबसे अधिक "निरपेक्ष" रहते हैं। वे कर्मों में लिप्त होते ही नहीं हैं इसलिए कर्म बंधन से भी मुक्त रहते हैं। ऐसे कर्मठ "योगियों" को क्या बैकुंठ की प्राप्ति नहीं होगी ?
न्यायालयों का हाल तो और भी श्रेयस्कर है। यहां पुलिस से भी बड़े वाले योगी सदैव "तपस्या" में लीन रहते हैं। पुलिस जब केस न्यायालय में भेजती है तब मजिस्ट्रेट उसमें जल्दबाजी नहीं दिखाते। जल्दबाजी में काम खराब हो सकता है। न्यायालय तो खराब काम को अच्छा करने के लिए बने हैं इसलिए अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए न्यायालय कभी भी जल्दबाजी नहीं करते हैं। न्याय प्राप्त करने में चाहे दो चार पीढ़ियां मर खप जायें , लेकिन न्यायालय अपने सिद्धांतों पर हमेशा कायम रहते हैं।
न्याय की देवी ने तो अपनी आंख पर गांधारी की तरह पट्टी बांध रखी है। ऐसे "अंधे" न्याय से आप क्या यह उम्मीद रखते हैं कि वह उसैन बोल्ट की तरह फर्राटा भरे ? फिर हम सबने बचपन में "खरगोश और कछुए" की कहानी तो पढ़ ही रखी है। संभवतः न्यायिक अधिकारियों को प्रशिक्षण के दौरान बार बार इस कहानी को पढ़वाया जाता होगा और उन्हें बार बार यह बताया जाता होगा कि "फर्राटा" भरने वाला खरगोश कभी नहीं जीतता है। जीत हमेशा उस "कछुए" की होती है जो धीमे धीमे चलता है। वह गर्मी - सर्दी -बरसात की परवाह नहीं करता बस धीरे धीरे चलता रहता है। प्रशिक्षण में उन्हें यह सिखाया जाता होगा कि वास्तव में कछुआ सबसे बड़ा "योगी" है क्योंकि वह अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में "सम" बना रहता है।
श्रीमद्भगवद्गीता यही कहती हैं कि "समता" में स्थित मनुष्य को हर हाल में "मोक्ष" प्राप्त हो जाता है और प्रत्येक मनुष्य का अंतिम लक्ष्य "मोक्ष" ही है। अहा ! न्यायालयों ने श्रीमद्भगवद्गीता को कितने अच्छी तरह से आत्मसात कर लिया है। उन्हें परिवादी और अपराधी दोनों एक जैसे नजर आते हैं। न उन्हें परिवादी से प्रेम है और न ही अपराधी से घृणा। कभी कभी तो ऐसा महसूस होता है कि न्यायालय अपराधियों से प्रेम और परिवादियों से घृणा करते हैं लेकिन यह मनुष्य के मन का केवल भ्रम मात्र है। न्यायालय तो महात्मा गांधी की तरह "संत" हैं और सदा "निरपेक्ष" ही रहते हैं। ये अलग बात है कि लोगों को महात्मा गांधी एक समुदाय के पक्ष में झुके हुए नजर आते हैं। उसी तरह लोगों को लगता है कि न्यायालय भी अपराधियों के पक्ष में झुके हुए हैं लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। ऐसा केवल "इल्युजन" के कारण लगता है।
न्यायालयों में किसी केस का निर्णय दस साल से पहले हो जाये तो यह मजिस्ट्रेट की विशेष उपलब्धियों में आता है। हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्येक केस के निर्णय के लिए मानक समय "बीस साल" निर्धारित कर रखा हो ? यह बात तो सुप्रीम कोर्ट ही जानता होगा, आम जनता तो नहीं जानती क्योंकि वहां "सूचना का अधिकार" तो लागू है नहीं जिससे जनता को कुछ पता चले। यद्यपि सुप्रीम कोर्ट सरकार पर जरूर दवाब बनाकर चलता है कि वह हर बात की सूचना जनता को दे चाहे राफेल की खरीद के बारे में कोई निर्णय हो या फिर विदेश नीति ही क्यों न हो ? सुप्रीम कोर्ट पारदर्शी व्यवस्था चाहता है तभी तो उसने "इलेक्टोरल बॉण्ड" को असंवैधानिक घोषित कर दिया था क्योंकि उसमें सूचना देने का प्रावधान नहीं था। ये अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे करता है इसकी सूचना आज तक सुप्रीम कोर्ट ने कभी जनता को नहीं दी और यह उनकी नजर में असंवैधानिक भी नहीं है। तभी तो सुप्रीम कोर्ट ने संसद से पास कानून "एनजेएसी" को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया था। कितने बड़े "कर्मयोगी" बैठे हैं सुप्रीम कोर्ट में। ये लोग कभी भी कर्मों में लिप्त नहीं होते। भोग विलास से तो सैकड़ों कोस दूर रहते हैं तभी तो अपनी संपत्ति की घोषणा नहीं करते। इन पर भ्रष्टाचार का मुकदमा भी नहीं चल सकता है और न ही इनको हटाया जा सकता है। इनसे बड़ा "कर्मयोगी" और "सांख्ययोगी" मिल सकता है क्या जगत में ?
लगता है कि प्रशिक्षण में न्यायिक अधिकारियों को श्रीमद्भगवद्गीता अच्छी तरह से समझाई जाती है तभी तो "कर्मयोग" का इससे बढ़िया उदाहरण और कहीं नहीं मिलता है देखने को। गीता के ज्ञान का ही यह परिणाम है कि न्यायालय वर्षों तक निरपेक्ष रहकर केस में तारीख पर तारीख देते रहते हैं। इससे परिवादी हिम्मत हारकर अपनी शिकायत या परिवाद वापस ले लेता है लेकिन न्यायालय कभी हिम्मत नहीं हारता। वह तो कर्मयोगी की तरह लगातार कर्म करता रहता है और तारीख पर तारीख देता रहता है। परिवादी न्यायालय से पीछा छुड़ाने के लिए झक मारकर अपराधी से "समझौता" कर लेता है लेकिन न्यायालय कभी "कर्मयोग" से समझौता नहीं करते हैं। ऐसे कर्मयोगियों को भगवद्धाम नहीं मिलेगा तो क्या आम जनता को मिलेगा जो सांसारिक विषय भोगों में सदैव लिप्त रहते हैं ?
भंवर सिंह भी पूरा कर्मयोगी था। कर्मों में कभी लिप्त हुआ ही नहीं। वास्तव में वह कर्मयोगी से कहीं अधिक "भक्त" था। श्रीमद्भगवद्गीता में अध्याय 7 और 8 में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो मनुष्य नित्य नित्यश: भगवान का स्मरण करता है यानि 24×7 भगवान का स्मरण करता है वह भगवान को ही प्राप्त हो जाता है। भंवर सिंह ने कभी गीता तो नहीं पढ़ी थी लेकिन पुलिस महकमे में ड्यूटी ज्वाइन करने के बाद "सयाने" पुलिस वालों की संगत में रहा था वह। उसने उनसे बार बार यह सुना कि अपने भगवान का हरदम स्मरण करते रहो , उनका कीर्तन करते रहो तो एक दिन भगवान अवश्य मिल जायेंगे। भंवर सिंह ने इस "सीख" को ऐसे हृदयंगम कर लिया जैसे बचपन में मीरा बाई ने अपनी मां की उस बात को हृदयंगम कर लिया था जिसमें उसने कहा था कि तेरा पति तो कृष्ण कन्हैया है। बस , उस दिन से ही मीरा बाई ने श्रीकृष्ण को अपना पति मान लिया था। ये अलग बात है कि संसार की नजरों में राजा भोज उनके पति थे।
इसी तरह भंवर सिंह ने अपने "मालिक" यानि एस पी साहब को अपना भगवान मान लिया था और दिन रात उन्हीं का कीर्तन यानि कि "गुणगान" करता रहता था। शास्त्रों में लिखा है कि "भक्ति" का फल तुरंत मिलता है। लोग बरसों तक कांस्टेबल बने रहते हैं लेकिन भंवर सिंह की भक्ति का ऐसा चमत्कार हुआ कि वह केवल दस वर्षों में कांस्टेबल से ए एस आई बन गया था। कोई कोई तो कांस्टेबल ऐसा होता है कि वह कांस्टेबल ही बना रहता है। लेकिन "भक्तों" का ध्यान "भगवान" अवश्य रखते हैं। भंवर सिंह जैसे "भक्त" जल्दी ही "प्रसाद" पा लेते हैं। भंवर सिंह को दो दो बार प्रसाद यानि कि प्रमोशन मिल गया था इसलिए उसे "भक्ति" का मार्ग पसंद आ गया और अब वह अपने "भगवान" यानि थानेदार जी का भक्त बन गया। वह बस एक ही काम कर सकता है और वह है थानेदार जी का प्रशस्ति गान करना। यही मोक्ष का पथ है। उसे पक्का विश्वास है कि इस पथ पर चलने वाले भक्त की सुधि भगवान अवश्य ही लेते हैं। इसके अलावा उसे और कुछ आता जाता भी नहीं है। थानेदार जी भी अपने भक्तों का पूरा ध्यान रखते हैं और समय समय पर उन्हें प्रसाद भी देते रहते हैं।
साइबर एक्सपर्ट ने किशन के मोबाइल नंबर से और भी डिटेल निकाल लीं। उस रात किशन महाराजपुर तो गया ही नहीं था क्योंकि उसके मोबाइल की लोकेशन उधर आई ही नहीं थी। फिर वह कहां गया था ?
उसके मोबाइल को लगातार ट्रैस किया तो उसकी लोकेशन "कल्याणपुर" में मिली। कल्याणपुर का नाम सुनते ही थानेदार "चमक" उठा। कल्याणपुर कानपुर का एक बदनाम एरिया है। यहां जिस्मफरोशी की जाती है।
"तो क्या किशन भी ? राम राम राम ! इतनी सुंदर बीवी होने के बाद भी कल्याणपुर गया था किशन ! छि : कितना घटिया आदमी था साला ! ऐसा आदमी गुम हो गया तो कम से कम धरती का कुछ बोझ तो कम हुआ"। थानेदार का मुंह नफरत से टेढ़ा हो गया।
इतने में एस पी साहब का फोन आ गया
"अरे , तुम्हें पता भी है कि शहर में क्या चल रहा है आज" ?
एस पी साहब का फोन आते ही थानेदारों की घिग्घी बंध जाती है। मुंह से बोल नहीं फूटते हैं। जुबान तालू से चिपक जाती है। थानेदार की भी यही हालत हो गई थी। जब उसने कोई जवाब नहीं दिया तो एस पी साहब ने चार गाली सुनाते हुए कहा
"न्यूज़ चैनल भी देखा करो कभी कभी। दिन भर मटरगश्ती करते फिरते हो काम तो कुछ करते नहीं हो। फटाफट से "फटाफट" चैनल देखो और तुरंत बिठूर जाओ। फटाफट चैनल के मुताबिक वहां पर कचरे के डंपिंग यार्ड में एक लाश मिली बताई जिसे कुत्ते नोंच नोंच कर खा रहे हैं। अब फटाफट जाओ और तुरंत कार्यवाही करके मुझे रिपोर्ट करो"।
लाश का नाम सुनते ही थानेदार की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। उस पर उसे कुत्ते भी नोंच कर खा रहे हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि "फटाफट" चैनल उसे "लाइव" भी दिखा रहा है। ऐसी बला में कौन अपना सिर देगा ? थानेदार को अचानक याद आया कि बिठूर उसके एरिये में नहीं है इसलिए वह लपक कर बोला
"हुजूर ! बिठूर मेरे एरिये में नहीं आता है"
"तू डी जी मत बन , थानेदार ही बना रह ! मुझे ज्ञान दे रहा है ? साले , तेरा वो हाल करूंगा कि पुलिस महकमे में तेरा नाम लेना भी पसंद नहीं करेंगे लोग ! भड़वा कहीं का ! मुझे बता रहा है कि बिठूर तेरे इलाके में नहीं है ! साले , मैं एस पी हूं एस पी। तेरी तरह नकल करके थानेदार नहीं बना। यूपीएससी करके आया हूं। चल ! तुरंत भाग और रिपोर्ट कर"। दो गाली और निकाल कर एस पी ने फोन काट दिया।
थानेदार की हालत ऐसी ही थी जैसी फरियादियों की थाने में जाकर होती है।
क्रमशः
