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Rahul S. Chandel

Abstract

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Rahul S. Chandel

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निःशब्द

निःशब्द

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कोशिशें भी इसमें थी,

मन्नते भी बहुत थी।

एक रोज तो हम,

उस चाहत के करीब भी थे

वो किसी और की भी जरूरत थे।

हम निशब्द खड़े रह गए !


मंजिले बिछड़ी रही,

जिंदगी घटती रही।

सफर में अपने धूप ही छाया थी,

रास्ते ही दिए हमें उम्र ने

चले थे जहां से वही।

हम निशब्द खड़े रह गए !


सब कुछ खोया जिसके लिए,

कुछ ना पाया उसके लिए।

वो इबादत भी मेरी,

वो मजहब भी मेरा था

एक अजनबी से पढ़ लिए और।

हम निशब्द खड़े रह गए !


इंसानियत का अहसास था,

जुनूनियत हद के पर था। 

हम बाया ना अपनी कर सके,

शायद कुछ और चाहत थी उनमें

हमारी मेहनत लगी खिलाफत उन्हें।

हम निशब्द खड़े रह गए !


उम्मीद हमारे हाथ थी,

हां एक उदासी भी साथ थी।

लक्ष्य के बिना जीना कहा था,

लेकिन लक्ष्य को मै मिला कहां था

सवाल तो वहीं था बस।

हम निशब्द खड़े रह गए !


ना लौटेंगे हम वापस,

शायद उन्ही भी रुकना पड़ेगा।

गिरे बहुत पर टूटे नहीं है,

हिसाब तो हर बात का करना पड़ेगा।

जब दिखती मंजिल तो रास्ते की खोज में,

हम निशब्द खड़े रह गए !


वो और होगे जो जी लेते हैं,

सांसें भी चलती नही हमारी।

फरेब नहीं होगा अब जीनें में,

बंजर में खुशी पीना है साथ।

कब इम्तिहान आसान था पर मुझे देख,

हम निशब्द खड़े रह गए !


जो देखा न सोचा ना था,

पाया है जो कभी सोचा ना था।

ये रहमत है या किस्मत मेरी,

या किसी दस्ताने जिगर है मेरी,

हां अब हमारी शक्सियत से तो,

अब वो निशब्द खड़े रह गए !


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