मुलाक़ात
मुलाक़ात
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आज मुलाक़ात हुई उससे जो सामने थी
पर नदारद थी
कहती थी बहुत कुछ
पर अनकही थी
लिपटी थी लिबास में
तहों पर तहें क़ैद थी
जागती रहती थी वह हर कतरा कतरा
पर बेशक रुसवाई से तर थी
जलता रहता था उसका गिरेबाँ शायद
क्यूँकि उसके बदन पर धुओं की परत थी
बड़ी सँकूचा रही थी आज भी वो धारिणी
घुटन अब उसकी आदत में शरीक थी
आज सबके दरवाज़े बंद हुए तो
वह संभल कर निकली है
अभी भी डरी हुई है
पर कुछ आशाओं से भरी है
धीरे धीरे जमीं आसमान में अपने पर फैला रही है
कुछ बोझ से हल्की
कुछ धुएँ से छटीं है
इतनी आज़ादी कहाँ उसे माँगने पर मिलती
उसकी तो वेदनाओं में पीढ़ियाँ रुकीं है
हाँ सही पहचाना जनाब
वो प्रकृति है
जो मेरी खिड़की पर आकर रुकी है
उसे डर है
दरवाज़े के उस पार
मेरी ही नहीं
उसकी भी जान मुसीबत में फ़सीं है