मंजिल
मंजिल
समझता ही नहीं ये दिल
की दुनिया और है आगे
की मंजिल वो नहीं तेरी
पीछे जिसके यूं तू भागे....
ना जाने किस पे ये दिल लुटा के हमने,
इस दिल को धड़कना सिखाया था
ना जने किसके ख़यालों में डूबकर
रात भर खोया रहता था
ना जाने किसकी ख़ुशी में हमने
ख़ुद को ही भुला दिया था..
किसी खुदगर्ज के खातिर
सब अपनों को रुलाया था...
जिन्दगी का हर लम्हा उस बीन
सुना लगने लगा था
फिर पता चला.... के फिर पता चला की
बेसब्री से इंतजार था जिसका
वो एक धोके का काला साया था ....