मन
मन
रात कुछ यूं हुआ,
मदमस्त बादलों के झुरमुट ने,
जब दरवाजा खोला,
तो रिमझिम बरसात हुई।
बच्चों ने हुड़दंग मचाया,
मैंने झूठा गुस्सा दिखाया।
ना जाने क्या सूझी मुझको,
सोचा क्यों ना समेट लूं कुछ बूंदें !
क्यों ना भर लूं एक डिब्बा !
ले आई एक डिब्बा,
अब भरेगा, कब भरेगा,
सोचूँ और निहारुँ।
फिर देखा
डिब्बे की दीवारें हैं
मुंह छोटा गहराई कम है,
न भर पाया रात भर में,
बेचारा डिब्बा !
सुबह हुई बरसात फिर से
गहरी लंबी सांसें भर कर
मन की दीवारों को तोड़ा,
हाथ खोलकर खड़ी हुई
भीगी धरती।
भीगा तन-मन
भर गया मन का डिब्बा
भर गया मन का डिब्बा।
