मेरे दादी बाबा
मेरे दादी बाबा
अस्सी से नब्बे की उम्र के बीच पड़ोसी के वो दादी-बाबा।
आजीवन घर ही जिन्होंने समझा काशी,काबा।
दिन रात अपनी मौत की दुआ मांगते है।
दुआ के रूप में अपने लिए ये क्यों बद्दुआ मांगते है।
एक तो बुढ़ापे ने कर रखा परेशान।
तिस पर औलाद का व्यवहार कर देता हैरान।
भरे पूरे परिवार के थे कभी महाराजा।
अपना सर्वस्व कर दिया बच्चो में साझा।
तीन बेटों की मां वो दादी फूले नहीं समाती।
बेटों को दुआ देते नहीं अघाती।
इन छायादार वृक्षों की बेचारगी देख मेरी आंख भर जाती।
वृद्धावस्था की विवशता इतना क्यों तड़पाती।
औलाद इतनी निर्मम क्यों हो जाती।
अपने जन्मदाता का दर्द क्यों नहीं समझ पाती।
उम्र का यह प्रश्न तो आएगा सबके समक्ष।
तुम्हारा भविष्य तुम्हारे सामने खड़ा प्रत्यक्ष।
फिर ये अकेलापन तुमको भी तड़पाएगा।
तब शायद दादी-बाबा का दौर तुम्हें याद आएगा।
सभी वृद्धजनों से आज मेरा ये स्नेहिल आहवान।
जीते जी कुछ भी मत कर करना ऐसी औलादो के नाम।
अन्यथा जीवन में पाओगे ऐसे ही परिणाम।
इनकी करतूतें स्थापित करेंगी नित नए आयाम।
नव पीढ़ी तुम बस इतना सा करना काम।
मात-पितृ को तुम समझना चारो धाम।
संस्कारों की अगर तू बेल लगाएगा।
सच मान तेरा बुढ़ापा सुधर जाएगा।