मेरा घरौंदा
मेरा घरौंदा


कभी कभी लगता है,
वो रेत के घरौंदे,
जिन्हे अपनी मर्जी से
सजाती थी ,सँवारती थी
बेहतर थे
इन कंक्रीट की दीवारों,
और इन पी.ओ.पी लगी
छतों से ,
जिन्हें मैं
घर बनाने की कवायद
में,
खु़द को ,
कतरा-कतरा खोती जा रही हूँ
जानती थी, कि उम्र लंबी
नहीं थी उन घरौंदों की
बस एक लहर के साथ
बह जाना था ,उन्हें
लेकिन,
उन कुछ ही पलों
में वो मेरे अपने होने का
अहसास करा जाते थे
और ये दर-ओ-दीवार
जिसके नाम कर दिया
मैनेंं
अपना संपूर्ण जीवन
मेरे होकर भी जाने क्यों
कभी,मेरे नहीं कहलाते।