मैं
मैं
थोड़ी मटमैली काली कुचैली
श्वेत आभा सी हर कोने में फैली
गाढ़ी, दृढ, सशक्त सी जो
वो रंग हूं मैं।
किसी की बदरंग आँखों में पल
रहे रंगीन सपनों का
किसी मासूम की मांग में भरा जाने वाला
वो रंग हूं मैं, जो शांत शीतल तो है
पर उतनी ही विद्रोही भी।
रंग ऐसी हूं, जो
सभी सुख, दुःख, सहनशीलता के
रंग में मिल जाए।
रंग वो जो
किसी के आक्रोश, तृष्णा, पश्चाताप
को भी अपने में घोल लिए जाये।
मुझे कितना भी रगड़ ल
ीजिये, धो लीजिए
चलिए मिटाने के लिए,
हर तोड़ नुस्ख भी जोड़ लीजिए पर मैं
फिर भी मिटूंगी नहीं।
जी हाँ, क्योंकि
रंग वो हूं, जिसमे झलक है,
राधा के प्रेम, यशोदा के मातृत्व
बेटी सीता की मर्यादा, और हाँ
लक्ष्मीबाई की वीरता की भी।
अपनी चपलता में भी, गाम्भीर्य का
अनोखा मिश्रण लिए
बुदबुदाये होठों पर अनायास ही
चढ़ने वाला सुर्ख़ रंग हूं मैं।
जी…
एक औरत के सभी भावों को शून्य कर
एक शांत भाव में तब्दील करे जो
बस उसी बिंदिया का रंग हूं मैं।