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चारुलता राठी

Abstract

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चारुलता राठी

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मैं सोच रही थी.....

मैं सोच रही थी.....

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        मैं सोच रही थी......

निले गगन के मुखमंडल से

धरती के कोमल सिनेपर

जब पाषानोकि वर्षा होगी

तो क्या होगा??

         मैं सोच रही थी.....

जीसने मानव का निर्माण किया था

अकल बंद कर भेजे मे

ज्ञान का भंडार दिया था

यही अकल जब दानव बनकर

ललकारेगी ......

मंदिर कलश 

मस्जिद की मिनारे

टूट धरापर आयेगी।

सागर मे आयेगा तुफान

और प्रलय सा मच जायेगा

तब कौन मनु इन्हे बचाने आयेगा ......

      मैं सोच रही थी.....

क्या होगा उस लोकतंत्रका

जीसने-

लोगोके लिये लोगोद्वारा लोगो का राज चलाना था।

हुकूमशाही का करके अंत.....

लोकतंत्र आपणाना था।

       मैं सोच रही थी.......

क्या होगा खेतो-खलिहानो का?

फ़सलों , नाजो, ढेरो का?

पेड़ों , पौधो, तालाबो का?

जो मेघो से जीवन लेकर

धरती को जीवन देते है

जब.....

जीवन ही जीवन नही पायेगा

तो इस धरापर जीवन कहासे आयेगा।

     मैं सोच रही थी........

क्या होगा.......

उस नई नवेली दुल्हन का.....

जो मेहंदी लगाके आयी थी?

क्या होगा ऊन आशाओ का.....

जो दामन में बांधकर लायी थी?

क्या होगा....

उन सुंदर सपनो का

जो हृदय मे संजोकर लायी थी

सास ननद के ताने बाने

जिना मुश्किल कर देंगे

क्या देख सकोगे उसे

अपनी आँखों से.....

जीवित आग में जलते.....

  मैं सोच रही थी.....

  मैं सोच रही थी.....




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