मासूमियत से जुदा होते जा रहे है हम।
मासूमियत से जुदा होते जा रहे है हम।
वो बारिशें बहुत खूबसूरत थी जिनमें बचपन में भीगा करते थे हम,
अब तो बस छप्पर फाड़कर मिल रहे है गम,
शायद यही था बड़े होने का आलम,
मासूमियत से जुदा होते जा रहे है हम।
एक वक्ता था जब कंधों पर सिर्फ स्कूल का बस्ता हुआ करता था,
अब तो है पूरे परिवार की जिम्मेदारियां और टूटे दिलों के गम,
शायद यही था बड़े होने का आलम,
मासूमियत से जुदा होते जा रहे है हम।
कभी तो एक कट्टी - अप्पा से रिश्तों के फैसले कर लेते थे हम,
अब तो गलतफहमी और फरेबी में फंस गए हैं हम,
शायद यही था बड़े होने का आलम,
मासूमियत से जुदा होते जा रहे है हम।