करीब आओ
करीब आओ
करीब आओ
कुछ यूं
के तुम्हारे लबों पर रखी
वो शबनम की बूंदे
मेरे पूरे हयात को
सुकून दे जाएं,
करीब आओ
कुछ यूं
के क़तरे में बिखरी
मेरी ज़िन्दगी को
मुक़म्मल होने का एहसास मिल जाए,
ये मुमकिन है
के फिर कभी
ये आलम ही ना हो
ये रात ही ना हो
तुम पासबान भी ना हो,
पर आज
करीब आओ
कुछ यूं
के हमारे ज़ेहन पर
सिर्फ एक ही हक़ीक़त क़ामिल हो जाये,
के ये शब
आखिरी शब है,
ये लम्हा
आखिरी लम्हा है
,
कल आने वाली
सुबह की वो पहली अनजानी किरन
तुम्हारे और मेरे वजूद तक को
न छू पाए
न देख पाए
न जान पाए
न समझ पाए।
मेरे और तुम्हारे शबाब के बीच
जिस्मो की बातें
बेमतलब हो जाएं
और बन जाये
रूह से चाहने वाला राब्ता।
एक दौर गुज़रा है
के हसरतों के काफिले को लेकर
मैं तुम तक आया हूँ।
मेरी खानाबदोशी की तुम
मुक़म्मल मंजिल बन जाओ,
आज अखिरी बार
कुछ यूं
करीब आ जाओ,
करीब आ जाओ,
करीब आ जाओ।