कलंदर !
कलंदर !
अंबर जैसी विशाल आंखें,
होंगी पंछी जैैैैसी तेरी पांंखे !
खुली पडी हैै दुनिया सारी,
भला फिर भी तु क्यों तुमाखें?
ये देह सोनेेेे की लंका जैसी,
मानो तो खुश्बू मिलाई वैसी,
श्री राम स्वयं को आना पडा,
फिर रावन की ऐसी तैसी !
माना गरीब है काफी लोग,
फिर भी इच्छा सबकी भोग,
वेद कहेे : 'ईश्वर है सच !'
उसे पाने का हुआ संजोग?
जीतेगा वही है सिकंदर !
हिम्मत तेरी है समंदर,
मंजिल"मारुति"है निकट,
मानव है या है कलंदर ?
