कीमत
कीमत
क्यों ना मिलता मांगे से हक,
लड़ के ही क्यों लेना पड़ता।
क्यों सच का ये कड़वा घुट,
सबको ही है पीना पड़ता।
इसको पीकर क्यों हमको सुकरात ही बनना,
आओ मिलकर अब इसको मीठा कर जाए,
ज़हर के खेत नही, प्यार के फूल खिलाएं।
बन जाए देने वाले, सर करके ऊंचा।
क्यों दूजे से ही कुछ न कुछ लेना चाहें।
सीख लिया है हमने भी अब चहरे पढ़ना,
दी है चाहे कीमत कितनी इसकी हरदम।
जीने का जो स्वाद चखा,
अश्क़ो से हमने, अब तो सीखें,
किसको बांटे दु:ख-सुख अपना।
