ख़्याल
ख़्याल
ख़ामोश हो जाती है जुबां,
ख़्वाब भी तेरे,
मुंतज़िर लगते हैं ।
तुझसे जुदा हो कर भी,
ना जाने क्यों ये,
तुझमें ही बसते हैं ।
इज़तीरार-सा,
महसूस होता है,
चेहरे फ़ीके पड़ने लगते हैं ।
नज़रे मिल जाएँ
जो पल भर के लिए तुमसे,
कई सूरज साथ,
ढलने लगते हैं ।
तहरीर में लिखने है जज़्बात,
पर अब लफ्ज़ भी,
कम पड़ने लगते हैं ।
जब ना रहने दे,
मासूम इश्क़ को,
तब आशिक़,
दुनिया-ऐ-आख़िरत में,
मिलने लगते हैं ।
मुझे शौक नहीं,
नुमाइश-ऐ-गम का,
बस मेरे शेर ही सब,
कहने लगते हैं ।
गैरों पर भरोसा,
करूँ भी तो कैसे,
जब मुझको मेरे अपने ही,
ठगने लगते हैं ।