कभी न कभी
कभी न कभी
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कभी न कभी तो पत्थर भी पिघल जाते हैं
कभी न कभी दुश्मन भी गले लग जाते हैं
कभी न कभी समंदर भी मैदान बन जाते हैं
पर तू साखी न जाने किस मिट्टी की बनी हैं
कभी न कभी तो सितारे भी टूटकर गिर जाते हैं
पर यकीन हैं एक न एक दिन तू बनेगी हमारी
रोजाना कर्म से तो कठोर पत्थर पर भी
नाज़ुक व कोमल सी रस्सी के निशां बन जाते हैं।