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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

कभी न कभी

कभी न कभी

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कभी न कभी तो पत्थर भी पिघल जाते हैं

कभी न कभी दुश्मन भी गले लग जाते हैं


कभी न कभी समंदर भी मैदान बन जाते हैं

पर तू साखी न जाने किस मिट्टी की बनी हैं


कभी न कभी तो सितारे भी टूटकर गिर जाते हैं

पर यकीन हैं एक न एक दिन तू बनेगी हमारी


रोजाना कर्म से तो कठोर पत्थर पर भी

नाज़ुक व कोमल सी रस्सी के निशां बन जाते हैं।


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