काश
काश
कभी कभी मैं सोचता हूँ
आसपास जानवरों को देख कर
काश ! मैं भी आदमी न हो कर
अगर जानवर होता
तो कितना बेहतर होता।
न भूत-भविष्य की चिंता
न वर्तमान से खफ़ा।
न धर्म, न जाति, न कोई रंगभेद
न ऊँचे का दंभ न नीच होने का खेद।
न करता किसी की चापलूसी
न किसी से किसी की कानाफूसी।
न ओहदे का अहंकार, न कोई भ्रष्टाचार
न रैली, न चुनाव, न वोट, न कोई सरकार।
न धन की लालसा, न छ्ल, कपट प्रपंच
न नेता, न अफसर, न मुखिया, न सरपंच।
न रिश्तों में खटपट, न रिश्तेदारी की झंझट
न नौकरी, न व्यापार, न पढ़ा-लिखा बेरोजगार।
न फ़ैशन की चाह, न लोक लाज़ की परवाह
न ख्वाहिशें, न फ़रमाइशें, न ज़ोर,न आज़माइशें।
न सुख में इतराना, न दुख में आँसू बहाना
हर दिन, हर हाल में बस अपने दम पर जीना।
कुदरत के करीब, न कोई अमीर, न कोई गरीब
न है कोई खुशनसीब ,न है कोई बदनसीब।
सब जी रहे हैं जो भी पैदा हुए जिस हाल में
न सजदे, न शिकायतें, न किसी भी मलाल में।
