कागज़ का परिंदा
कागज़ का परिंदा
कागज़ में कैद परिंदा हूँ मैं,
बस कलम की खातिर ज़िंदा हूँ मैं।
यूँ तो सांस सभी लेते हैं,
यूँ तो जज़्बात सभी कहते हैं।
पर शब्द एक संजीदा हूँ मैं।
कभी जो झकझोरूँ,
इन बेहरूपी मखौटों को,
और सोचूँ उस दायरे से आगे,
जहाँ रहूँ मैं केवल अपनी कागज़ी दूनिया में,
ना ये कह के शर्मिंदा हूँ मैं
कागज़ में कैद परिंदा हूँ मै।
ना है चाह विभिन्नता की,
ना है ख्वाब स्वछंदता के,
अपनी कैद खुद चुनता हूँ मैं
कागज़ में कैद परिंदा हूँ मैं।