नाउम्मीदी
नाउम्मीदी
उम्मीद की महफिलों में,
नाउम्मीदी के जाम छलकाते रहना।
उम्मीद तो बेवफा है,
महफिलों की तरह सजी संवरी,
पर ठहरती है बस रात को,
ना जाने कहाँ रहती दोपहरी?
इसिलए उम्मीदों के दीपक में,
नाउम्मीदी का तेल भरते रहना।
उम्मीद की वफ़ा पे ना भरोसा है,
ये तो उस फरेब का नाम है,
जहाँ इश्क के नाम पे सब धोखा है।
वो कहते हैं कि उम्मीद पे दुनिया कायम है,
फिर क्यों दुनिया में खुशियां कम और ज़्यादा गम है।
माना कि नाउम्मीदी भी नही कुछ कम है।
पर उसके वजूद में सच्चाई है,
बेवफा नही है वो,
ना ही वो हरजाई है।
एक बार आती है,
तो सच्चे प्रेम की तरह,
वजूद हिला जाती है।
भले तोड़ झकझोर के निकलती हो,
पर जीने का सलीका सीखा जाती है।
उम्मीद में जो ढूंढो कभी नाउम्मीदी,
नही मिलेगी तुमको कोई चीज़ ऐसी।
पर नाउम्मीदी की बात ही निराली है।
नाउम्मीदी है वो, पर उसमें जीवन
जीने की उम्मीद का पलड़ा भारी है।
बहुतों को लगती होगी ये क्या मगजमारी है,
कैसे उम्मीद एक बीमारी है?
तो सुन लो तुम खोल के कान,
नाउम्मीदी से जो जूझा इंसान,
वो समझ चुका होता है,
जीवन के सौपान,
उम्मीद की गैर मौजदगी में,
जब बिछड़ जाते हैं कुछ मकान,
तो नाउम्मीदी ही देती है जीवनदान।