कागज और कलम का संवाद
कागज और कलम का संवाद
कलम ने अपनी नोक से जब
खटखटाया कागज के दिल का द्वार
निकला वो पूछने कलाम से
क्या चाहिए तुझे अबकी बार
कहा कलम ने हो बेपरवाह
उमड़ रहे मेरे मन में कुछ विचार
पहुँचा सकूँ उन्हें जनमानस तक
फिर बन जा तू उसका आधार
कागज बोला मै तो युगों से
बैठा यहीं, करता तेरा इंतजार
सूना सा है जीवन मेरा
गर तू ना भरे इसमें रंग हज़ार
फिर क्यों देरी, फिर क्या शंका
खोल द्वार, कर मेरा आगमन स्वीकार
अपने पन्नों के एकाकीपन में
लाने दे मुझे सतरंगी बहार
सरल नहीं यह मेरे लिए इतना
सहजता से दूँ जो दामन पसार
तेरे गर्भ में है जो अठखेलते
वे हैं 'शब्द', होता जिनका घातक प्रहार
शब्दों से क्यों भय खाता पगले
शब्दों का तो मैं लिए बैठी भण्डार
एक शब्द ने जो किया बवंडर
हैं कई, जो देंगे क्षति को सुधार
गुमान इतना अपनी क्षमता पर
सच कहूँ, तो नहीं उचित व्यवहार
जो तू ना रखे संयम स्वयं पे
निभाना साथ तेरा होगा दुश्वार
क्यों हो रहा इतना चिंतित तू
सोच कितना छोटा है तेरा किरदार
संजोकर मेरे शब्दों की अभिव्यक्ति
दोहराता जा बारम्बार
सच कहा अब तूने पगली
सोच बड़ा कितना है मेरा किरदार
संजोकर तेरे शब्दों की अभिव्यक्ति
देना है मुझे, हर पीढ़ी को पतवार
अब सुन सखी, मुझे है कुछ कहना
माना शब्द है तेरे प्रबल हथियार
प्रेम या द्वेष, क्या फैलाना तुझको
विचार कर ही देना उन्हें कोई प्रकार
माना तू है बड़ी बलशाली
लिए बैठी शब्दों का भण्डार
पर एक शब्द जो करे घाव कहीं
अन्य मिलकर, भी न कर पाएं उपचार
वेद पुराण दिए इस जग को
मुझे कहाँ तेरी प्रभुता से इंकार
विवेक से लिखे जो तू इस दामन पर
तेरा आगमन है मुझे सहर्ष स्वीकार
तेरा आगमन है मुझे सहर्ष स्वीकार
