जज़्बात, चाय और हम
जज़्बात, चाय और हम
जज़बातों को कभी कह ना सके हम,
ज़ुबान पर बात थी, पर हूटों पर हिम्मत नही थी
कई अनकही बातें आंखों से हो रही थी,
और फिर भी हम खाली हाथ वापस लौट आयें
चाय के गरम प्याले भी ठंडे हो रहे थे,
केहते हैं चाय पे बातों का मज़ा ही कुछ और है,
पर हम, हम तोह खामोश बैठे थे
लोग हमें देख रहे थे, और हम एक दूसरे को,
और कभी, कभी चाय की प्यालियूं को
चुस्कियूँ का मज़ा भी ले ना सके हम
गालों को चूमती हुई आंखों से नदियाँ जो बेह रही थी,
उसकी भी, और मेरे भी,
उसकी तोह नाक भी लाल हो चुकी थी,
बहुत खूबसूरत लग रही थी वो, रोते हुए भी
पर हमारी बातें, वो खामोशी के नीचे दब सी गयी
हम बाहर आये, और अपने अपने रास्तों को चल दीये,
बिना मुड़े, बिना एक दूसरे को कुछ कहे,
शायद हमें एहसास हो गया था,
की ये हमारी आखरी मुलाकात थी,
उसके बावाजूद, हम कुछ ना कह सके,
और ना कुछ कर सके I
जज़बातों को हमने अपने दिलों में कैद कर दिए थे,
और अपनी ज़िन्दगी की राहों की ओर चल दिए थे...!