जीवन धारा
जीवन धारा
मन रे तू क्यों हुआ बावरा !
क्यों खुशियों के सागर में ,
तैरता है, बलखाता है !
नाचता है कूदता है..
शुक्र ,.. ख़ुदा का मनाता है !
फ़िर ग़म में क्यों तू
शोर मचाता है ...
रोता है, बेचैन होता है ,
आँखों से आंसुओं का झरना बहाता है !
जबकि मालूम तुझे भी है कि..
जीवन धारा में तो बहते जाना है !
ये जगत तो एक सरायखाना है ...
यहाँ न कोई अपना है न कोई पराया है !
यहाँ तो पल दो पल का ही ठिकाना है!
फ़िर क्यों लोभ मोह के चक्रव्यूह में,
पिसकर आँसू बहाना है !
चंचल मन पर संयम की लगा.. डोर
तभी आएगी शान्त मनोरम ..सुखदायी भोर ..
समभाव ही है जीवन में सर्वोत्तम उपाय
जो ये सिखाए कि जीवन धारा में सुख दुख,
दोनों ही आते है ...
जैसे वसंत के बाद पतझड़ में पत्ते झड़ जाते हैं !
जैसे पूर्णमासी के बाद अमावस्या की रात्रि में,
अंधेरे सताते हैं ..
किंतु प्रकृति को प्रत्येक ऋतु के परिवर्तन भाते हैं
अतः हे मन ... जीवन धारा में तो पग पग में ..
फूल ...कम होंगे ज्यादा होंगे ...शूल
पर न जाना तुम भूल कि .....
सुख की गागर और दुःख के सागर दोनों में ही
समभाव को अपनाना है ..
क्योंकि ये जगत स्थायी नहीं ..
ये जगत एक... सरायखाना है ..