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जब रक्षक भक्षक बन जाये

जब रक्षक भक्षक बन जाये

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तुम्हें चाहिए क्या आजादी , सब पे रोब जमाने की ,

यदि कोई तुझपे तन जाए , तो क्या बन्दूक चलाने की ?

ये शोर शराबा कैसा है ,क्या प्रस्तुति अभिव्यक्ति की ?

या अवचेतन में चाह सुप्त है , संपुजन अति शक्ति की । 


लोकतंत्र ने माना तुझको , कितने हीं अधिकार दिए ,

तुम यदा कदा करते मनमानी , सब हमने स्वीकार किए  ।

हाँ माना की लोकतंत्र की , तुम पे है प्राचीर टिकी ,

तेरे चौड़े सीने पे हीं तो , भारत की दीवार टिकी ।


हाँ ये ज्ञात भी हमको है , तुम बलिदानी भी देते हो ,

हम अति प्रशंसा करते है , कभी क़ुरबानी भी देते हो ।

जब तुम क़ुरबानी देते हो , तब-तब हम शीश नवाते हैं ,

जब एक सिपाही मर जाता , लगता हम भी मर जाते हैं ।


पर तुम्हीं कहो जब शक्ति से , कोई अनुचित अभिमान रचे ,

तब तुम्हीं कहो उस राष्ट्र में कैसे ,प्रशासन सम्मान फले।

और कहाँ का अनुशासन है , ये क्या बात चलाई है ?

गोली अधिवक्ताओं के सीने पे, तुमने हीं तो चलाई है।


हम तेरे भरोसे ही रहते , कहते-रहते तुम रक्षक हो ,

हाय दिवस आज अति काला है , हड़ताल कर रहे तक्षक हैं ,

एक नाग भरोसे इस देश का , भला कहो कैसे होगा ?

जब रक्षक हीं भक्षक बन जाए , राम भरोसे सब होगा।



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