हर कोई को इसके लिए काबिल नहीं समझता
हर कोई को इसके लिए काबिल नहीं समझता
मैं अपनी कविता सुनाऊँ,
हर कोई को इसके लिए काबिल नहीं समझता!
कोई एक जरूर है मेरी कविता सुननेवाली,
मेरी अल्फ़ाजों को पिरोकर कविता बुननेवाली।
जिसे ही मैं इसके लिए मुकाबिल समझता।
मैं हर बिंदु को अपनी कविता का केंद्रबिंदु बनाऊँ ,
इसके लिए मैं अपने आप को मुनासिब नहीं समझता।
कोई एक आसमां है मेरी आशियाँ में ,
जिसको अपनी कविता को आवाज़ देने के लिए काबिल समझता।
मैं वैसा शायर थोड़े ही हूँ जो सबके लिए शायरी बनाऊँ ,
एक शायरी है मेरी सरगम में जिसे सुकून की शायरी बनाऊँ ,
उसमें रच- बसकर
मैं उसे हर पल गुनगुनाऊँ।
उदास हूँ मैं, मगर मैं सबको अपनी उदासी का कारण बताऊँ
इसके लिए सबको मैं काबिल नहीं समझता।
कोई एक जरूर है इस दुनिया में जिसे मैं खुलकर अपनी गम बताऊँ,
उस फरिश्ते को फ्रिक जरूर रहती है कि मेरी उदासी का वो कारण जान पाये ?
संग मिलकर निराशा के क्षणों में भी हँसी - खुशी के गीत गुनगुनाएं !
कोई एक आशियां जरूर है जहाँ थक- हारकर मैं उसके पास जाकर हौसला पाऊँ।
हर कोई को मैं अपनी कविता सुनाऊँ ,
इसके लिए मैं सबको काबिल नहीं समझता।
उस एक फरिश्ते की मुस्कान को ही मैं अपनी होंठों से मुस्कुराऊँ।