गज़ल
गज़ल
हम तो बैठे हैं कब से तेरी आस में
तिश्नगी बढ़ गई प्रेम की प्यास में
हर किसी को तो अपना बताते हो तुम
क्यों बुलाया हमें महफ़िल ए ख़ास में
ज़िन्दगी का हर इक मोड़ हँस कर जीयो
राम जी चल दिए जैसे बनवास में
होके नर तुम न अब यूँ निराशा धरो
हौसले हैं तो सब है तेरे पास में
जिसने जीवन गुजारा हो ईमान पे
राम बसते हैं तब उसकी हर सांस में
सौदा उल्फ़त का अपनी न करना कभी
प्यार पल पल बढ़े तेरे एहसास में
अपनी 'चाहत' को जब तक बयां न करूँ
दिल ये उलझा रहे इश्क़ की फ़ांस में
