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Ajay Pandey

Abstract

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Ajay Pandey

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गुल्लक

गुल्लक

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जोड़ जोड़ कर लम्हे लम्हे

इक गुल्लक बनाया मैंने

छोटी छोटी सी खुशियों से

फिर इसको सजाया मैंने

सोचा फुर्सत मिलते ही खोलेंगे

अपने सब सपने जी लेंगे।


कितने ही पल गुजर गए

इस गुल्लक को बनाने में

कितने ही खुशनुमा पलों को

भुलाया मैंने इसे बनाने में।


एक दिन गुल्लक ने पूछा-

इतनी शिद्दत से मुझे बनाते हो

इस पल में क्यूँ नही

अपना जीवन सजाते हो


मैंने बोला- फुर्सत के पल में सोचेंगे

जब भी मुझको मिलेगा मौका

खुलकर के इसको जी लेंगे।

उसने बोला- ऐसे तो जाने

कितना वक्त गुजर जाएगा

और जो पल बीत गया है

वो लौट कहां फिर आएगा।


बीते पल दोबारा नहींं मिला करते

सिक्के हों या ज़िंदगी

जो इक बार छूट जाते हैं

फिर दोबारा नही चला करते।


इक दिन खाकर के ठोकर

वो गुल्लक फिर गिर गया

गिरकर न जाने कितने ही

टुकड़ों में वो बिखर गया।


बिखर के भी उसने सिखलाया

कड़वी सच्चाई से अवगत करवाया

जो कुछ है बस इस पल में है

न जाने किस ठोकर से


जीवन ये बिखर जाएगा

जिन खुशियों को बटोरा प्रतिपल

जाने कब वो बिछड़ जाएगा।

यही वक्त है खुल कर के जी लो हर पल

फिर जाने लौट के आये न आये ये पल।


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