घर का छत
घर का छत
ये उन दिनों की बात थी
गर्मियों का मौसम थी
रात भर बिजली गुल थी
न कोइ व्हाट्सएप, न कोइ टिकटोक थी
बस अंतराक्षरी की गुनगुनाना होति थी
ये मेरा घर का छत का कहनी थी
डूबता हुआ सूरज और चाय
मे वो माज़ा कहँ| आय
जो की सीसीडी या स्टारबक्स मे आए
मज़ा और आए ज़ब कोई
ज्योत्सना की रात मी झालमुरी पाए
छतों की कहनी रिहती थी अधूरी
पूरी बात है रहती थी बाकी
दोस्तों, ये मेरा घर का का छत की कहनी थी।