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चेतना प्रकाश चितेरी , प्रयागराज

Abstract

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चेतना प्रकाश चितेरी , प्रयागराज

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घर है तुम्हारा

घर है तुम्हारा

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संँभाल लो ! घर संँवार लो ! 

घर है तुम्हारा।


बड़े नाजुक होते हैं दिल के रिश्ते, 

तुम इन्हें निभा लो! 

धीरे - धीरे बंद मुट्ठी में रेत की तरह फिसल जाएगा, 

मन में प्रायश्चित के सिवा कुछ भी नहीं बचेगा , 

अपनों से कैसा शिकवा ? 


तुम्हारा है परिवार , 

तुम इसे बेगाना न समझो ! 


एक दूसरे से प्रेम कर लो! 

चार दिन की है जिंदगानी , 

खाली हाथ आए हैं खाली है जाना

सब कुछ धरा पर रह जाएगा , 


सामंजस्य बिठा लो ! 

मायके से ज्यादा ससुराल है प्यारा , 

अपना के देखो तुम एक बार , 

प्रेम करते हैं सभी तुमसे, 

थोड़ा मान - सम्मान इन्हें दे कर देखो, 

मोम की तरह हृदय है इनका, 

तुम इनकी भावनाओं से खेलना छोड़ो !


संँभाल लो! सँवार लो ! घर है तुम्हारा।



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