ग़ज़ल
ग़ज़ल
हालात ही कुछ ऐसे थे कि वे बिगड़ गये,
टहनियों की बात क्या जड़ से उखड़ गये।
इस शहर की भीड़ में अपना किसे कहूँ,
जो थे हमारे हमसफर, हमसे बिछड़ गये।
किस-किस को अपनी आज हम दास्ताँ कहें,
दुश्मनों के बीच हम किस तरह जकड़ गये।
सींचने में पेड़ को, कुछ गलतियाँ हुईं,
पत्ते बचे हैं साख पर फल तो झड़ गये।
शिकवा न पल रहा कहीं दिल की जुबान पर,
शायद नई ज़मीन पर ' बुन्नू ' पिछड़ गये।