ग़ज़ल :-
ग़ज़ल :-


ज़ीस्त का ख़्वाब पारा पारा था ।
मैंने ये जिस्म जब उतारा था ।
ज़िन्दगी दे गई फ़रेब मुझे ।
अब मगर मौत का सहारा था ।
क्या मसर्रत का ,क्या तो दर्दो -ग़म ।
ज़ायका हर शै का ही खारा था ।
कब समन्दर से ख़ौफ़ था कोई ।
मेरी आग़ोश में कनारा था ।
इन फ़ज़ाओं में ख़ाक है मेरी ।
मैं ने मुझको यहीं पे हारा था ।
न दिवाना था मैं ,न तो पागल ।
डूबने का मुझे इशारा था ।