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PraGun Tatwa

Abstract

2.7  

PraGun Tatwa

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एक बूँद

एक बूँद

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कुछ और नहीं केवल

पानी की एक बूँद हूँ मैं,

कभी ताल, कभी नदी तो कभी

समंदर का स्तोत्र हूँ मैं।


जो भूमि में मिल जाऊँ तो

उसे जीवित कर जाँऊ

जो जल में मिल जाऊँ तो

प्राणियों की प्यास बुझाऊँ।


जो कोई मुझे संजोए तो

जीवन का सुख पाये,

जो कोई मुझे गवाएं तो

प्यासा रह जाऐ।


इस भूमि की प्यास हूँ मैं,

प्यासे की आस हूँ मैं

पर कोई क्यों नहीं मुझे समझता,

कोई क्यों नहीं मुझे संजोता।


कब जानेगा तू हे मानव,

कि बूँद-बूँद से घड़ा भरता है,

जन जन का पसीना ही

खुशहाली को सींचता है।


हे मानव कर ले तू

ये गाँठ अपने मन में,

कि बूँद बन जा तू और

कर दे भरा इस धरती का घड़ा।


जब मिल जाएगी

सारी बूंदें तो हो जायेगा

ये विश्व स्वर्ग सा हरा और भरा।


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