दरख्त और कुल्हाड़ी
दरख्त और कुल्हाड़ी
अरे बेशर्म मानवों!
कितने बेहया हो तुम
मगर तुम्हें क्या फर्क पड़ता है
तुम आखिर सुनते ही किसकी हो।
तुम तो अपनी जन्मभूमि
अपनी पैतृक जड़ों से भी
कटते जा रहे हो,
अपने ही खून के रिश्तों को
स्वार्थ वश दूर कर रहे हो।
तुम तो इतने समझदार हो कि
अपने माँ बाप को भी
निहित स्वार्थ वश मौत की ओर
ढकेलने में भी नहीं शरमाते हो।
फिर हम तो बेजुबान हैं
न हम प्रतिरोध करते हैं
न कुल्हाड़ी विरोध करती है,
फिर भी तुम हमें एक दूजे का
दुश्मन मान मगन हो,
कुल्हाड़ी को आग में खूब जलाते हो
मन मुताबिक आकर देकर
उसे तैयार करते हो,
उसके प्रहार से हमें घायल करते
काटते, चीरते फाड़ते हो,
फिर कुल्हाड़ी को किसी कोने में डाल
हमें बार बार तड़पाते
स्वार्थ वश हमें रुलाते हो
घायल करते रहते हो
बहुत खुश होते हो।
पर ऐसा करके भी
तुम खुश कहाँ रहते हो?
जीवन के लिए जीवन भर
छटपटाते, घिघियाते हो
दरख्तों से ही तुम्हारा जीवन है
ये समझ कहाँ पाते हो?
कुल्हाड़ी और दरख्त को
एक दूसरे का दुश्मन बनाने की जिद में
अपने आपके दुश्मन बनते जाते हो
खुद को बड़ा सयाना समझते हो।
