धर्म
धर्म
धर्म को अपनों से भी कहीं अधिक
चाहा है हमने,
पूजा है हमने,
अंगीकार किया है हमने।
भले ही समय की बदलती हवा ने
मद्धम कर दिया है भरोसे की लौ को।
कभी स्वार्थ की परत से,
कभी लोभ की बढ़त से,
कभी ईर्ष्या की चमक से।
फिर भी हर स्थिति में
स्वीकार किया है हमने।।
भले ही
ज्ञान के उजालों ने
कर दिया है हमें पहले से अधिक शिक्षित।
कभी तर्कों के विवाद पर,
कभी अध्यात्म के साथ पर,
कभी अंतरिक्ष की राह पर।
फिर भी इक लत की तरह
स्वीकार किया है हमने।।
भले ही
धर्म ने ईश्वर को बनाया
एक कल्पना की तरह जानते समझते है हम।
कभी ग्रंथों की असहमति पर,
कभी प्रतिबंधों की छड़ी पर,
कभी अंधश्रद्धा की कड़ी पर।
फिर भी जन्म-मरण के समय
सदा अंगीकार किया है हमने।।
क्यों,
आखिर क्यों ? क्योंकि. . .
ये धर्म ईश्वर से
अलग कभी था ही नहीं।
ईश्वर मनुष्य से
अलग कभी था ही नहीं।
वस्तुतः मनुष्य ईश्वर का ही तो अंश रहा सदा से,
फिर भला
कैसे न स्वीकार होगा
ये ईश्वर हमें,
ये धर्म हमें।।
