सवाल
सवाल
आँखों में तुम्हारी
जब भी देखा है मैंने,
एक सवाल उभर आया है।
ये दूरियाँ
कब क्यों और कैसे,
बदल जाती है नज़दीकियों में।
पराएपन का अहसास
कब कैसे और कहां,
सिमट जाता है अपनेपन के साये में।
अजनबी सा कोई दिल
दिन महीनों और वर्षों में नहीं,
बंध जाता है कैसे सदा के लिए; कुछ ही फेरों में।
भले ही नहीं होता जोड़ कहीं
न रक्त न वंश न वर्णों का कोई मेल,
लेकिन समा जाते हैं; जैसे नदी एक सागर में।
इसे ही प्रेम कहते हैं शायद
देह आत्मा और रिश्तों को जो,
बांध लेता है जन्म-जन्मांतर के लिए।
हाँ इसे ही प्रेम कहते हैं शायद
धर्म दिशाओं और सीमाओं को पीछे छोड़,
समा जाए जो एक दूसरे में; सदा के लिए।
यही जवाब है इस सवाल का
दिल जुबां और रूह पर
जो आ के रुक गया है अक्सर,
गर सही हूँ मैं तो आओ
मिल जाए हम सदा के लिए।
