चिड़िया
चिड़िया
मैंने देखा उन्हें आज -कल
वो सड़क किनारे सोते है,
रक्त रंग में लिपटे, शायद
मरे हुए वो होते है।
घर-घर में ए.सी की ठंडक,
बाहर उन्हें जलाती है
तभी तो गौरईया आज कल ,
नज़र कहीं ना आती है।
पेड़ निवास होते थे जिनके
अब छज्जे पर आ कर रहते हैं,
विलुप्त हो रहा उनका जीवन,
जिनको "चिड़िया" कहते हैं।
मेधावी मानव ने आज के
मेधा ये दिखलाई है,
गिनी-चुनी ही देखो
इनकी संख्या बच पाई है।
सूखे कंठो का भार लिए
कैसे पर फैला पाएं,
उन्मुक्त गगन के वाशिंदों का,
धुंए से दम घुटता जाए
ये विपदा जो हम पर आई है,
ये तुम पर भी आएगी,
हे मानव! ये मेधा तेरी ,
प्रकृति से जीत ना पाएंगी।
आगह रहो तुम हे मानव!
ये चक्र बिगाड़ा है तुमने,
अब हर्जाना भी तेरा होगा,
विलासिता के बिस्तर में
मृत्यु का सिरहाना भी होगा।
