चाहत तेरी
चाहत तेरी
उफ़्फ़ तेरी खुली ज़ुल्फ़े कयामत सी हैं
उलझ के रह जाता हूँ इनमें।
तेरे कानों की बालियां खनकती हैं
जब कसम से मेरा भी इमान डोल जाता है।
वो तुम्हारे हाथों में हरी-हरी चूड़ियाँ और
जब पैरों में बजती है पायल तो लगता
है कोई साज़ बज रहा हो जैसे,
मधुर-मधुर तान सुनाई देती है।
उफ़्फ़ ये रूख़सार खिलते गुलाब से,
आँखें जैसे भरी हों शराब से।
चाल है हिरनी सी,
आवाज़ मीठे स्वर में गाती कोयल हो।
क्या कहूँ, करने लगता हूँ ग़र तारीफ
तुम्हारी तो बोल कम पड़ जाते हैं
ग़र बैठूँ लिखने तो स्याही
भी खत्म हो जाती है।
भाव-विभोर खिँचा चला आता हूँ
तुम्हारी ओर एक अनदेखी सी डोर से
बँधा हुआ।
तेरी चाहत ने वो काम कर दिया,
गुमनाम थे हम, शहर में
हमें बदनाम कर दिया।