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भाऊराव महंत

Abstract

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भाऊराव महंत

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बिन बच्चे सूना घर-आँगन लगता है

बिन बच्चे सूना घर-आँगन लगता है

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बिन बच्चे सूना घर आँगन लगता है

खुशियों से खाली हर दामन लगता है


किलकारी जो गूँजे घर में बच्चों की 

आया जैसे रिमझिम सावन लगता है


बोली लगती है उनकी मीठी-मीठी 

बोले जब वो गायन वादन लगता है


पास नहीं हो दौलत तो क्या होता है 

बच्चों से घर साधन सम्पन लगता है


करते हैं जब-जब भी कोलाहल बच्चे  

तब-तब अपना हर्षित ये मन लगता है


ईश्वर बसता है बच्चों की मूरत में 

घर सारा जन्नत-सा पावन लगता है।


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