भूली - बिसरी यादें
भूली - बिसरी यादें
ना किसी को याद है वो भोर जब , बडों के साथ सब उठ जाते थे।
शेर हो या गीदड़ मुसीबतों में भाई-भाई , शिकारी की भाँति टूट जाते थे।
कहाँ पडी़ थी दवा की पेटीका वो हरी - भरी नीम की कोंपलें खाकर
व्याघ्र सें शरीर की खाल ज्यों ओढें कम्बल बीमार बिमारी से रूठ जाते थे।
बुजुर्गों की आशाओं पर गाँवों में अक्सर वो चौपालें होती थी ,
सरपंच ही न्यायपति था , राजशाही की मिशालें होती थी ।
मजूंर ही था महफिल का फरमान ,
पुलीस अदालतें तो स्वप्न में भी कालीं होती थी।
औरत का सुशोभित गहना , उसका मन और यौवन होता था।
कहाँ हर घर में सभंव था ऐश्वर्य, झोंपडी़वाला भी धनवान होता था।
बस लाज से हर लाजमति हर गाँव में इस कदर मशहूर थी ,
हर नजर में उसका मान-सम्मान जन्नत और वो उसकी हूर थी।
