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Shishpal Chiniya

Abstract

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Shishpal Chiniya

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भूली - बिसरी यादें

भूली - बिसरी यादें

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ना किसी को याद है वो भोर जब , बडों के साथ सब उठ जाते थे।

शेर हो या गीदड़ मुसीबतों में भाई-भाई , शिकारी की भाँति टूट जाते थे।


कहाँ पडी़ थी दवा की पेटीका वो हरी - भरी नीम की कोंपलें खाकर

व्याघ्र सें शरीर की खाल ज्यों ओढें कम्बल बीमार बिमारी से रूठ जाते थे।


बुजुर्गों की आशाओं पर गाँवों में अक्सर वो चौपालें होती थी ,

सरपंच ही न्यायपति था , राजशाही की मिशालें होती थी ।


मजूंर ही था महफिल का फरमान ,

पुलीस अदालतें तो स्वप्न में भी कालीं होती थी।


औरत का सुशोभित गहना , उसका मन और यौवन होता था।

कहाँ हर घर में सभंव था ऐश्वर्य, झोंपडी़वाला भी धनवान होता था।


बस लाज से हर लाजमति हर गाँव में इस कदर मशहूर थी ,

हर नजर में उसका मान-सम्मान जन्नत और वो उसकी हूर थी।


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