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Sakshi Agrawal

Abstract

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Sakshi Agrawal

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भूख!

भूख!

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उसकी नज़र लगातार दीवार पे लगी घड़ी पर अटकी थी, कब २ बजें और छुट्टी हो।

आज तो भूख के मारे जान ही निकल गई।

भूख़ से जान निकलना - कितनी आसानी से कह देते हैं हम !

पर क्या हम इसके मायने भी जानते हैं?

भूख होती क्या है - क्या हम उसकी शक्ल भी पहचानते हैं?


भूख़ से मिलना है तो जाओ उस सिग्नल पर बैठी फूल  बेचने वाली बूढ़ी अम्मा के पास, 

रात हो चली, पर फूल ना बिके उसके, अब तो खाना मिलने की भी नहीं है कोई आस।

भूख़ का पता पूछो उस दिहाड़ी मजदूर से जो सुबह गया था काम ढूंढने शहर के पार,

पर लौट आया निराश थका हारा वो, पेट की ज्वाला पानी से भूझाने को तैयार।


भूख़ तुम्हे दिखेगी मंदिर के बाहर भीख मांगते उन छोटे छोटे बच्चों में, 

जो भरते हैं अपना पेट लोगों की आस्था के सहारे;

जिनको इक वक़्त की रोटी भी नसीब नहीं हो पाती झूटन से हमारे।

ये भूख़ आंख मिचौली खेलती दिखेगी उस गरीब किसान के साथ,

जिसकी फसल बारिश ने एक बार फिर कर दी बर्बाद।


और भूख तुम्हें दिखेगी उन गरीब बूढ़े मां बाप की आंखों में,

जिनके अपने बच्चे अब नहीं करते हैं उनको याद।

भूख़ से जान निकलना क्या होता है ?

ये पूछो उस मजदूर से जो अपना पेट दबा के सोता है,

इस आस में कि शायद उसकी भूख भूखी रहकर खुद ब खुद मिट जाएगी।

या उन कचरा बीनने वाले बच्चों से जो खुद ये नहीं जानते कि - भूख़ से

या कचरे के ढेर में पड़े सङॆ खाने से, किस से उनकी जान पहले जाएगी?


भूख का अहसास करो उस मां के पास, जो बचा कुचा

खाना अपने बच्चों को खिला खुद पानी पी के सो जाती है,

उसकी ममता के साए में ये निर्मोही भूख भी अपना अस्तित्व खो जाती है।

अपने शीशमहल में बैठे जो अहसास आपको नाश्ते और दोपहर के खाने के बीच होता है;

उसे भूख का नाम दे कर उस गरीब लाचार की तौहीन तो ना करें जनाब।

हां अगर कुछ करना चाहते हो, तो अपनी थाली से दो निवाले उस गरीब के लिए भी निकाल दो;

जो मांग रहा है इस निष्ठुर समाज से अपनी भूख का हिसाब।


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