भोर से सांझ तक
भोर से सांझ तक
भोर से सांझ तक, राह निहारते रहे
तुम आये तो नयन जीते,
तब तक मन हारते रहे।
ज्योत्सना सी थी छवि उज्जवल अनूठी,
वाणी में वेद मंत्रो की हर क्षण अनुभूति
उपमा उपाधि की आकाश गंगा।
कवि की आत्ममुगधता और अभिरूचि
तुम को पा लेते तो स्वप्नो पर विराम होता,
नही होती कविता, कल्पनाओ को विश्राम होता।
सबका यही प्रश्न , क्या प्रेम है तुमसे
और हम कठोर हृदय नकारते रहे.
भौर से सांझ तक राह निहारते रहे।
तुम आये तो नयन जीते,
तब तक मन हारते रहे।।
तुम आये तो नगर मेरा ,
गोकुल सा अँचल हुआ,
तुम लगी राधा सी रूपसी।
मन मेरा श्याम ग्वाले सा चंचल हुआ,
दृष्टि मेरी तुम्हारे लोचन से मिली,
मानो क्षण त्रिवेणी के आचमन का जल हुआ।
प्रेम का रोग इतना विकट है,
और हम इसे टालते रहे,
तुम आये तो नयन जीते तब तक।

